ओडिशा की अनोखी कलाकृति ‘पट्टचित्र’ – Odisha ‘Pattachitra’

पट्टाचित्र ओडिशा के समृद्ध कला और संस्कृति का प्रतिक है। प्राचीन काल से विभिन्न कला प्रकार उड़िया लोगों के जीवन मार्ग दिखाते है, उनमे से एक पट्टचित्र कला है। पट्टाचित्र संस्कृत से विकसित हुई कला है। इसका दो भागों में बिभाजन करे तो इसका अर्थ समज आता है, जो पट्टा का अर्थ है कपड़ा और दूसरा चित्र। याने कपडे के एक टुकड़े पर चित्रित किया एक चित्र है।

यह हिंदू पौराणिक कथाओं के जटिल रूप पर आधारित रघुराजपुर, ओडिशा के चित्रकार परिवारों द्वारा बनाई गई पारंपरिक कला या पेंटिंग का एक रूप है, जिसमे कला का यह रूप श्री जगन्नाथ के पंथ और पुरी में मंदिर परंपराओं से निकटता से संबंधित है। इसकी शुरुवात 12वीं शताब्दी में हुई थी। तब से अब तक यह सबसे लोकप्रिय जीवित कला रूपों में से एक है।

परंपरागत रूप से इस चित्रकला को चित्रकारों के पूरे परिवार द्वारा किया जाता है। इसे मुख्य तौर पर कपड़ों के टुकड़े पर बनाया जाता है, जिसमे विभिन्न सब्जियों, पत्थरों और मिट्टी आदि से निकाले गए प्राकृतिक रंगों से पेंट करता है। शंख से सफेद रंग को पाउडर, उबालकर, और बहुत ही मुश्किल प्रक्रिया में बहुत धैर्य के साथ छानकर तैयार किया जाता है। हिंगुला एक खनिज है उससे लाल रंग तैयार किया जाता है। काला रंग दीपक से जलते हुए पुलंगा के तेल से या नारियल के खोल को जलाने से प्राप्त होता है, और हरा रंग नीम के पत्तों बनाया जाता है। गोंद इमली के बीज से तैयार किया जाता है तो ब्रश के तौर पर जानवरोंके बालों का इस्तेमाल किया जाता है। इस कालकृति में महिला भी हाथ बटाती है अंतिम परिष्करण के लिए ज्यादातर मास्टर कलाकार पुरुष होते है। पट्टाचित्र पेंटिंग के लिए, चित्रकार कैनवास तैयार करने की पारंपरिक प्रक्रिया का पालन करते हैं।

पट्टचित्र के सभी कलाकार ओडिशा के एक छोटे गांव रघुराजपुर से ताल्लुक रखते है। भारत में यह एकमात्र गांव है जहा के हर परिवार का सदस्य कारीगरी में लगा होता है।
पट्टाचित्र मुख्य तौर से हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित आइकन पेंटिंग बनाते हैं। सबसे लोकप्रिय विषय में जगन्नाथ भगवान और जगन्नाथ मंदिर, कृष्ण लीला, भगवान विष्णु के दस अवतार, पांच सिर वाले देवता के रूप में भगवान गणेश का चित्रण, रामायण और महाभारत की कहानियां जैसे पारंपरिक कहानियों को चित्रित किया जाता है।

पट्टाचित्र टसर रेशम पर, नारियल के बाहरी आवरणों पर और लकड़ी के बक्सों पर बने विषयों को चित्रित करते हैं। चित्रों में चित्रित जानवरों और पक्षियों के आधार पर चित्रित लकड़ी के खिलौने बनाने पर भी काम करते है। “पोथी चित्र” – इन्हें “ताला पट्टाचित्र” या ताड़ के पत्ते पट्टाचित्र के रूप में जाना जाता है। ताड़ के पत्तों को कुछ समय के लिए सख्त होने के लिए रखा जाता है फिर कैनवास की तरह दिखने के लिए एक साथ सिला जाता है। बादमे चित्रित किया जाता है।

पट्टचित्र कला की विशिष्ट शैली को पीढ़ी दर पीढ़ी तक ले जाया जाता है और यह रघुराजपुर के पट्टा चित्रकारों द्वारा कला का एक प्रकार का विरासत रूप है।

समय के साथ पट्टा चित्र पेंटिंग का तरीका भी बदल रहा है। यह अधिक लोकप्रिय और व्यावसायीकरण हो रहा है। वर्तमान में, लोग पट्टाचित्रों को चित्रित करने के लिए विभिन्न माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं। वॉल हैंगिंग, साड़ी, हैंडबैग और ड्रेस सामग्री आदि विभिन्न पट्टा शिल्पकारों द्वारा पट्टा कला के साथ डिजाइन किए गए हैं और बाजार में भी उपलब्ध हैं। आधुनिक कैनवस पर प्राकृतिक रंगों और पारंपरिक पट्टा के बजाय विभिन्न प्रकार के कारखाने में बने रंगों का उपयोग किया जाता है।

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