What is Carbon Credit and Kyoto Protocol in Hindi

कार्बन क्रेडिट क्या है ?

कार्बन क्रेडिट यह एक अलग ग्रीनहाउस गैस (tCO2e) के बराबर मात्रा का उत्सर्जन करने के अधिकार का प्रतिनिधित्व करने वाला परमिट है।
कार्बन क्रेडिट एक परमिशन है, जो कार्बन उत्सर्जन करने के लिए मिलता है। पाहिले के दौर में ऐसा नहीं था। कोई भी देश कितना भी कार्बन उत्सर्जन करता था, जिसपे कोई पाबन्दी नहीं थी। इसका असर धीरे-धीरे पर्यावरण पे होने लगा। इसीलिए कार्बन क्रेडिट को लाना पड़ा, जिससे ये कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण हो सके। ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) का उत्सर्जन घटने के लिए इसका निर्माण हुआ।

कार्बन क्रेडिट को उत्सर्जन को नियंत्रित करने की आवश्यकता के जवाब के रूप में बनाया गया था। कार्बन क्रेडिट में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कैप किया जाता है और फिर बाजारों का उपयोग विनियमित स्रोतों के समूह के बीच उत्सर्जन को डिस्ट्रीब्यूट करने के लिए किया जाता है।

आपका कार्बन उत्सर्जन मुख्य तौर पे जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से होता है। कमर्शियल प्लांट्स, औद्योगिक क्षेत्र से अधिक तर कार्बन उत्सर्जन होता है। जितना आप उत्सर्जन करेंगे उतनाही आप ऐसे प्रोजेक्ट्स में निवेश करना होगा जो उत्सर्जन को घटाए या उसे सोखे। इससे उस देश की लागत भी बढ़ेगी।

जितना आप उत्सर्जन कम होगा उतना आपका पैसा बचेगा। कार्बन क्रेडिट आपके उत्सर्जन की भरपाई करते है। मतलब यह  की आप जीतनी गन्दगी करते है, उतनी ही सफाई करोगे तो गन्दगी हुई ही नहीं।

कार्बन क्रेडिट से मिलनेवाले पैसों से कई जंगल लगाए जा रहे है, तो कई अक्षय परियोजना में निवेश हो रहा है, जो जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को घटाती है।

एक कार्बन क्रेडिट का मतलब है की आपने एक टन कार्बन डाय ऑक्सीइड या ग्रीन हाउस गैसों को पर्यावरण में जाने से बचाया है।
जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन होता है। जो की धरती से मिलनेवाला ईंधन है। इसमें बिजली उद्योग, केमिकल उद्योग, कपड़ा उद्योग, स्टिल उद्योग, खाद उद्योग शामिल है।

जिस भी देश को कार्बन उत्सर्जन को घटाना है, वे कार्बन क्रेडिट खरीदते है। मान लीजिये किसी देश का कार्बन उत्सर्जन कम है, तो वह किसी कंपनी या देश को कार्बन क्रेडिट बेच सकते है जिसका कार्बन उत्सर्जन ज़्यादा हो।

2016 में वैश्विक कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन लगभग 36 बिलियन मीट्रिक टन था। क्योटो प्रोटोकॉल में कार्बन क्रेडिट सिस्टम को आधिकारिक रूप से औपचारिक रूप दिया गया था, जबकि कार्बन क्रेडिट बाज़ार को विनियमित करने वाले तंत्रों को मारकेश समझौते में स्थापित किया गया था।

 

क्योटो प्रोटोकॉल क्या है?

प्रोटोकॉल याने एक एग्रीमेंट होता है। इसकी शुरुवात 1992 में रिओ दे जनारिओ, ब्राज़ील में हुई थी। वहा एक Earth Summit हुआ था। जिसमे काफ़ी देश शामिल थे। इसमें क्लाइमेट चेंज पर चर्चा हुई थी, जो उस समय भी लोगों में क्लाइमेट चेंज के बारे ख़तरा था। उस समय ‘UNFCCC’ की नींव रखी गयी थी और ये फुल्ली फ़ोर्सेली 21st मार्च, 1994 में उतर के आया। जिसका फुल फॉर्म ‘united nation framework convention on climate change’ है। इसमें ये निर्णय लिया गया की इसके तहत हर साल सभी देश क्लाइमेट चेंज के ऊपर चर्चा करने के लिए दुनिया के अलग-अलग शहरों में मिलेंगे। इस चर्चा को COP कहा जायेगा, मतलब ‘conference of parties’ ।

पाहिली COP बर्लिन, जर्मनी में 1995 में हुई थी। दूसरी जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में 1996 में और तीसरी 1997 में जापान के सुंदर शहर क्योटो में हुई थी।

क्योटो प्रोटोकॉल बसीकली ये था कि इसके अंतर्गत जो दुनिया के विकसित देश है जैसे अमेरिका और यूरोपियन देश, जपान जैसे देश को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर 5.2% की रोख लगानी होगी 2012 तक। पर ये सब विकसित देश ही क्यों? क्योंकि ये सब देश थे जो प्रायमरली ज़िम्मेदार थे, हाई लेवल ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए। जिसमे एनेक्स कन्ट्रीज में जैसे विकसित देश थे, जो उनको ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन 5.2 % तक कम करनी थी और जो नॉन अनेक्स देश जो उस समय के विकशनशील देश जैसे भारत, इंडोनेशिया, चीन जैसे देशों को कम्पलसरी ऑब्लिगेशन नहीं थे, पर उनको भी करने को कहा गया था। साथ ही इसके तहत काफ़ी देशों को व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग भी टारगेट दिए थे। जैसे अमेरिका को 7%, यूरोपीय यूनियन को 8 %

कार्बन ट्रेडिंग

कार्बन ट्रेडिंग भी एक क्योटो प्रोटोकॉल का ही भाग हैं
उदाहरण के लिए : मान लीजिए किसी एक देश जैसे जापान के पास एमिशन कोटा 1000 यूनिट्स की परमिशन है, और यूरोप का देश जर्मनी को 800 यूनिट्स का एमिशन कोटा हैं। जबकि जापान अपने दिए हुए एमिशन कोटा 1000 यूनिट्स से कम यानी 900 यूनिट्स ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता हैं, सालाना। जापान ने सोलर प्लांट्स लगाके, हाइड्रो इलैक्ट्रिसिटी जैसे तरीके अपना के उन्हों ने ग्रीन हाउस गैसों का एमिशन कम कर दिया। जापान ने 1000 यूनिट्स की अनुमति थी, उन्हों ने 900 यूनिट्स ही खर्चे और उसके विरुद्ध जर्मनी ने अपने 800 यूनिट्स से ज्यादा 900 यूनिट्स ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किया । जर्मनी ने 100 यूनिट्स ज्यादा खर्चे, उसने लिमिट एक्ससीड कर दी।

अब इस एमिशन ट्रेडिंग के तहत जर्मनी जापान से वह 100 क्योटो यूनिट्स खरीद सकता है, जो जापान के पास ज़्यादा 100 यूनिट्स क्रेडिट के तौर पर बचे हुए है। एक सर्टेन अमाउंट के बदले पैसा देकर, ज्यादा तर ये मैन्युफैक्चरिंग कंपनीज द्वारा किया जाता है।

CLEAN DEVELOPMENT MACHANISM के अंतर्गत ये ही उदाहरण में जर्मनी के पास एक ऑप्शन है। सोलर पावर प्रोजेक्ट या फिर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट जैसे प्रोजेक्ट जो ग्रीन हाउस गैसों को रोखता हैं, उसे किसी डेवलपिंग कंट्री में जाकर लगाना होगा और उस कंट्री से एक सर्टिफिकेट भी लेना होगा की इस प्लांट से 100 यूनिट्स ग्रीन हाउस की कटौती हुई हैं। ऐसा करके जर्मनी अपने फालतू पॉइंट ख़राब किये है, उसकी भरपाई कर सकता है।

क्योटो प्रोटोकॉल 11 दिसम्बर, 1997 को जापान में अपनाया गया था और उसके रटिफिकेशन प्रोसेस में काफ़ी परेशानी के बाद 16 फेब्रुअरी, 2005 में फोर्स्ड में लागू किया गया।

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