मानवी शरीर विभिन्न प्रकार के जैविक तरीकों से बदलते पर्यावरणीय के प्रति आसानी से प्रतिक्रिया करता है। पृथ्वी की स्थिति समय समय पर वातावरणीय बदलाव लाती है। पृथ्वी की आज की स्थिति पहले कभी भी नहीं रही है, वह समय से बदलती रही है और उसी प्रकार जीवों में भी परिवर्तन होते गए।
बदलती पर्यावरणीय परिस्थिती के तेजी के कारण हमारे पृथ्वी के अधिकांश क्षेत्रों में रहनेलायक क्षमता में जीवित रहना संभव हुआ है। पृथ्वी के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के जंगलों में, रेगिस्तान और अर्टिक भूमि में और घनी भीड़वाले इलाकों में प्रदूषणों के साथ रहना मुश्किल नहीं है।
मानव इस प्रभावों के प्रति संवेदनशीलता को कम करके जलवायु परिवर्तन के अनुकूल हो सकता हैं। मनुष्य ने अपनी आवश्यकता के अनुसार प्राकृतिक वातावरण से स्वयं को ढालना सीखा है। भले ही कुछ कृत्रिम स्त्रोतों को बनाके अपने आप को ढलने की कोशिश की है। यह परिवर्तन विनाशकारी हो सकते है या फिर पर्यावरणीय विकास कर सकते है।
प्रत्येक जीव में एक अनूठा पारिस्थितिकी तंत्र होता है, जिससे वह उस वातावरण में जीवित रहने में मदद करता है।
जब मनुष्य प्राणी ने अनुकूलित वातावरण से रहना का प्रयास शुरू किया तब नवपाषाण युग का दौर था। उस समय अनुकूलित होने के प्रयास से मौसम दर मौसम मनुष्य ने वातावरण से ढालना सिख लिया था जब उसका घूमना बंद हुआ और एक जगह पे रहने लगा। एक बार जब लोग एक जगह बस गए, तो उन्हें एक ही वातावरण के अनुकूल होना पड़ा और कुछ अविश्वसनीय बदलाव करने लगे।
यह चीज एक बात की पुष्टि करता है, जिस प्राणी ने पृथ्वी के बदलते वातावरण में रहना सिख लिया वही जीव आज जीवित है और मनुष्य का इतिहास भी यह बताता है की आज भी मनुष्यविकास होने के बाद भी आनेवाले परिस्थितयों के अनुकूलित खुद में बदलाव करने के मानव तैयार है।